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कविता

इच्छाओं के प्रेत

मालिनी गौतम


बहुत सँभाला मगर हाथ से
फिसली जीवन रेत ।

हाथ धरे माथे पर अलगू
चिंता बहुत करे
ताड़ हुई बेटी को देखे
या फिर करज भरे
जमींदार की तेज नजर से
बच न सकेंगे खेत ।

मौसम हुए मनचले जबसे
खुशबू हुई कपूर
बौराए काँटों से छलनी
हुआ सुमन का नूर
बूढ़े बरगद पर छाए हैं
इच्छाओं के प्रेत ।

बंदवारों ने स्वागत में
दिए द्वार जब खोल
चोर-लुटेरे घुस आए
पहने पाहुन का चोल
मुँह में राम बगल में खंजर
बगुला फिर भी श्वेत।


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